Santulan short stories: “पुत्र आदित्य! अभी तक सोए हुए हो… काम पर नहीं जाना क्या?”… माता अदिति ने बेटे को झकझोरते हुए जगाया।
“नहीं माँ, आज मैं नहीं जाऊँगा। मुझे भी तो कभी अवकाश चाहिए?”
“नहीं वत्स ! तुम्हारा जन्म परोपकार के लिए ही हुआ है। तुम कैसे अवकाश ले सकते हो? पृथ्वी पर सब तुम्हारी राह देख रहे होंगे। फिर आज तो धरती के कुछ इंसान तुम्हारी विशेष पूजा-अर्चना भी करने वाले हैं।ठिठुरती ठंड में जल में खड़े होकर तुम्हारे उदय की प्रतीक्षा कर रहे हैं। 

” इंसानों की तो बात ही मत करो माँ… उन्हें मेरी कोई आवश्यकता नहीं है। उनके विकास का पहिया तो मेरे सात अश्वों के रथ से भी तेज चल रहा है। उन्होंने प्रकृति के नियमों की अनदेखी की और मुझे चुनौती देते हुए कितने ही नकली सूरज बनाकर रात और दिन का भेद ही मिटा दिया है। इन्हीं इंसानों ने मुझे ग्रीष्म की दोपहरी में जी भर के कोसा भी है। “

” बेटा! ‘अति सर्वत्र वर्जयेत’ नहीं सुना है तुमने? जब तुम असहनीय ताप से झुलसाओगे तो आलोचना सुनने के लिए भी तैयार रहना पड़ेगा। 
        तुम उन इंसानों के बारे में सोचो जो पूस की सर्द रात को सिर्फ इस उम्मीद के सहारे झेल जाते हैं कि प्रभात होते ही दिवाकर अपनी स्वर्णिम किरणों की गर्म रजाइयाँ ओढ़ाकर उनके जीवन को गर्माहट से भर देगा। 
   संपूर्ण जगत के चर-अचर सभी जीवों की आस तुम ही तो हो। कितनी ही कलियाँ खिलने को आतुर तुम्हारी बाट जोह रही हैं। तुम्हारी एक दिन की अनुपस्थिति प्रकृति के असंतुलन का कारण बन जाएगी जिसकी भरपाई करने की क्षमता किसी में नहीं है। क्या तुम खुश रह पाओगे अपनी प्रिया प्रकृति को असंतुलित करके? “
” नहीं! हरगिज नहीं… इस असंतुलन से होनेवाले भयावह परिणाम की कल्पना से ही आदित्य सिहर उठा। 
“माँ मेरे घोड़े और रथ तैयार हैं?” 

               

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