Saahityakaar kee jimmedaaree Hindi Kahani: साहित्यकार का काम प्रवचन देना या धर्मोपदेश देना नहीं है । यह कार्य हमारे साधु संत भली-भांति कर रहे हैं । साहित्यकार का कार्य मनोरंजन करना भी नहीं है । यह कार्य हमारे फिल्मी कलाकार , भांड , नट और किन्नर बहुत बेहतर ढंग से कर रहे हैं । साहित्यकार कोई शिक्षक भी नहीं है और ना ही समाज को दिशा देने वाला है , ना ही वह सुझाव देने वाला है कि ऐसा होना चाहिए , लोगों को वैसा करना चाहिए ।
साहित्यकार का लक्ष्य महफ़िल सजाना भी नहीं है । यह कार्य भी कुछ अन्य किस्म के लोग अच्छे से कर रहे हैं । साहित्यकार का काम नेताओं और पूंजीपतियों की शान में कसीदे पढ़ने का भी नहीं है । इस कार्य के लिए भी सरकारी लोग नियुक्त होते हैं । साहित्यकार तो इन सबसे ऊपर सच्चाई की मशाल लेकर चलने वाला अग्रदूत होता है । साहित्यकार का दर्जा धर्मोपदेश में साधु-संतों , शिक्षकों , कलाकारों , परामर्शदाताओं और समाज सुधारकों से बहुत ऊपर का होता है । आज के समय में तो साहित्यकार की जिम्मेदारी और भी अधिक बढ़ गई है । साहित्यकार कभी भी अपनी शान में स्वयं कुछ नहीं कहता है यदि कोई उसकी सच्ची प्रशंसा भी करे तो उसे वह सुनने में संकोच होता है । एक सच्चा साहित्यकार मान अपमान से परे होता है । वह एक स्मृति चिन्ह और शॉल ओढ़ने के लिए दूर किसी शहर में तो क्या अपने ही शहर में जाने से बचता है । एक साहित्यकार की रचना बड़ी है या उसका व्यक्तित्व ? इसका अंदाजा लगाना बहुत कठिन होता है । साहित्यकार कभी भी बड़े भवन बड़ी गाड़ी और बड़ी जमीन जायदाद के आकर्षण में नहीं फंसता है । हो सकता है कि एक साहित्यकार राजा के कहने पर भी कुछ ना लिखें कुछ ना सुनाएं और उसका मन है तो यूं ही गलियों में गीत गुनगुनाता फिरे या फिर किसी भी समय कागज कलम उठा कर लिखने बैठ जाए । साहित्यकार कभी भी पुरस्कार प्राप्त करने के लिए जुगाड़ नहीं लगाता है । साहित्यकार के लिए सबसे बड़ा पुरस्कार उसकी रचनाएं होती है जिन्हें लिखने में ही वह संपूर्ण आनंद प्राप्त कर लेता है । उसका कर्म ही उसका फल बन जाता है ।
यह बात भी सत्य है कि किसी को साहित्यकार बनाया नहीं जा सकता । साहित्य कोई गणित नहीं है जिसे हम किसी को सिखा दें ।
साहित्यकार बनने की बड़ी ही अद्भुत प्रक्रिया है जिसमें स्वयं साहित्यकार को पता नहीं चलता कि वह कब और कैसे एक साहित्यकार बन गया । एक ही कोख से पैदा होने वाले कई – कई भाइयों में पता चलता है कि एक बेफिक्रा , मस्त – तबीयत का साहित्यकार हो गया और बाकी भाई पूरे हिसाबी – किताबी , एक – एक पैसे का जोड़ – तोड़ लगाने वाले बन गए ।
कभी जब कोई हलकी रचना किसी अखबार या पत्रिका मैं पढ़ता था तो सोचता था कि संपादक भाई डेस्क पर बैठे कर क्या रहा है ? उन्हें इतना भी नहीं पता कि यह लघुकथा नहीं बस एक चुटकुला है । किंतु अब महसूस हो रहा है कि संपादन कोई आसान कार्य नहीं है । न जाने कितनी ही बेहूदा और निम्न स्तर की रचनाओं से गुजरने के बाद कोई एक – आधा रचना श्रेष्ठ मिल जाती है तो उसे कुछ सुखद एहसास होता होगा । कभी-कभी तो बड़े नाम वाले लेखक की भी बहुत हल्की रचना मिलती है । उसे यह कहना भी कठिन हो जाता है कि बाबू जी आपकी यह रचना छपने योग्य नहीं है । ऐसे ही बहुत दिग्गज लघुकथा लेखकों की लघुकथाएं हम इस अंक में छाप रहे हैं किंतु वें लघुकथाएं है ही नहीं । हां कुछ ऐसे लेखकों की लघुकथाएं इस अंक में हैं जिनका अभी तक कोई लघुकथा संग्रह नहीं आया है और लघुकथा भी कुछ इक्की – दुक्की ही लिखी है । उन लेखकों से भविष्य में काफी उम्मीदें हैं ।
ऐसा भी नहीं है कि जो कुछ भी लिख दिया गया है वही साहित्य हो गया । साहित्य में भाषा , शिल्प , भाव और मन – मस्तिष्क पर प्रभाव डालने वाले विचार होने चाहिए । हिंदी साहित्य में ऐसी – ऐसी रचनाएं लिखी गई हैं जिन्हें पढ़कर लोगों का जीवन ही बदल गया है । जिसका हृदय जितना अधिक संवेदनशील होगा वह उतना ही बड़ा साहित्यकार बन जाता है बशर्ते उसने हाथ में कलम थामी हो । असल में मानव जीवन का उद्देश्य है कि हम सभी श्रेष्ठ और छल – कपट रहित जीवन जियें । साहित्यकार उसमें अपनी अहम भूमिका निभाता है ।
अंत में मैं छोटे भाई एम.एम. चंद्रा और डायमंड पॉकेट बुक्स का आभार प्रकट करता हूं कि मुझे साहित्य विमर्श पत्रिका को लघुकथा विशेषांक का अतिथि संपादक बनाया । इसी बहाने मुझे सैकड़ों लेखकों की लघुकथाओं से आत्मसात होने का अवसर प्राप्त हुआ । मुझे बड़ा ही सुखद आश्चर्य हुआ कि इतनी कम अवधि में लेखकों ने अपनी रचनाएं मेल से भेजी ।
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