बहन के श्वसुर साहब की मृत्यु हो गई तो अमरीश जी माता जी के साथ तेहरवीं पर गये। श्वसुर साहब का अपने नगर में बहुत नाम था, बहुत लोग आए हुए थे। पंडित जी प्रवचन के उपरांत श्वसुर साहब के बारे में ही बता रहे थे—
“बहुत भले व्यक्ति थे। कभी किसी का बुरा न चाहा न किया, अंतिम सांस तक भलाई करके गए हैं। ईश्वर सभी को ऐसा ही जीवन दें”।
पंडित जी के हटने के बाद श्वसुर साहब को श्रद्धांजलि देने वाले खड़े हो गए। तभी अमरीश जी ने देखा, माता जी रुमाल से अपनी आँखें पोंछती उठ कर बाहर जा रही हैं। वह पुरुषों में बैठे थे, उठ खड़े हुए और आगे बढ़ कर उन्हें सहारा देकर बाहर ले आए।
“क्या हुआ माँ? आप ऐसे क्यों उठ कर आ गए?”
माँ ने सवालिया निगाह से ही प्रतिप्रश्न किया तो अमरीश जी पल भर में सब समझ गए। कुछ रिश्तेदार बाहर खड़े हँसी-ठिठौली कर रहे थे, जो माता जी को रोते देख कर चुप हो गए। अमरीश जी उन्हें धूप में बिछी कुर्सियों पर ले आए। माँ-बेटा बैठे तो दोनों के दिमाग में श्वसुर साहब की बातें गूँज रही थीं—
दहेज के लिए तो लोग घर भी गिरवी रख देते हैं।
मेरे हजार बारातियों का खाना तो होगा ही।
सीधे-साधे परिवार ने सब झेला। लेकिन श्वसुर साहब ने बेटी पर भी कुदृष्टि रखी और उसकी इज्जत पर हाथ डालने का भी दो बार प्रयास किया। तब दामाद को अलग घर के लिए मदद करने में भी आर्थिक बदहाली परिवार को ही झेलनी पड़ी।
मरे हुए व्यक्ति की बुराई नहीं करनी चाहिए लेकिन अंदर झूठ का जो महिमामंडन हो रहा था, वो माता जी सह न पाईं और रोते हुए बाहर आ गईं।
धीरे से वह अमरीश जी के कान में रोते हुए ही फुसफुसाईं—
नर्क में भी जगह न देगा भगवान।
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