कुछ समय पहले ही आशाबाई गाँव से हमारे शहर आई थी। थोडे समय मे ही उसने सब का मन जीत लिया था। चेहरे पर मुस्कुराहट के साथ घर के बच्चों से प्यार से बात करना, बड़ो का आदर करना उसके स्वभाव मे था। काम के लिए उसे टोंकना नही पड़ता था,पूरी लगन और मेहनत से वह काम करती थी लेकिन जो बात सबको अच्छी नही लगती थी वह थी अपने साथ नौ बरस की बेटी ज्योति को काम पर साथ-साथ लिए फिरना।

पढ़ने लिखने की उम्र मे लोगों के झूठे बर्तन साफ करने मे अपनी मदद ज्योति से करवाकर  शायद वह सबको अनायास ही बाल मजदूरी कानून के उलंघन के अपराध मे झोंक रही थी। सबने आशाबाई को कई बार कहा था कि वह ज्योति को अपने साथ नही लाए तथा पढ़ने के लिए स्कूल भेजे लेकिन वह हर बार मुस्कुराकर बात को टाल देती, कहती ‘ क्या करेगी पढ़कर अभी से काम करेगी तो माहिर हो जाएगी,हमने भी तो ऐसे ही शुरुआत की थी।’  

एक दिन सुबह से ही कालोनी मे गहमा गहमी का माहोल बना हुआ था, रोज की तरह सभी महिलाएँ बातचीत करने के लिए जमा थीं लेकिन चर्चा का विषय आज कुछ अलग था। यों अक्सर हँसी मजाक,सुख दुख की बातों मे समय कटता था। बड़ा अच्छा वातावरण था कालोनी का।  लेकिन आज सब कुछ चिंतित से दिखाई दे रहे थे। पड़ोस की पिंकी स्कूल जाते जाते हर घर मे खबर पहुँचा आई थी कि आज आशा आँटी काम करने नही आएँगी, उनकी बेटी ज्योति बीमार हो गई है हमारे यहाँ उनका फोन आया था। थोडी देर बातचीत के पश्चात सभी महिलाएँ अपने अपने घर का कामकाज निपटाने चलीं गईं।

उधर आशाबाई ज्योति को लेकर अस्पताल पहुँच गई थी। पड़ोस वाली आंटी ने उसे अस्पताल का रास्ता आदि समझा दिया था कहा था कि पहले लाइन मे लगकर पर्ची कटवाना पड़ेगी। अत: आशाबाई वहाँ लाइन में लगी हुई थी। लाइन कुछ अधिक ही लम्बी थी। बडी देर बाद आशाबाई का नम्बर आया तो खिडकी पर बैठे व्यक्ति ने कहा –‘बाई बिल दिखाओ!’  आशाबाई घबरा गई।  उसने सोंचा आंटी ने बिल के बारे मे तो कुछ नही बताया था ।

उसने बाबू से पूछा ‘कौनसा बिल भैया ? मेरे पास तो बिल नही है।’   इस पर बाबू कुछ कड़े स्वर मे बोल पड़ा-‘ तो इतनी देर से बिजली के बिल भरने की लाइन मे क्यों खड़ी हो बाई!’   आशाबाई के चेहरे का रंग उड़ गया। लाइन मे खड़े किसी व्यक्ति को उस पर तरस आ गया गया,उन्होने उससे पूछा-‘ क्या काम था तुम्हे बाई?’   आशाबाई ने सकुचाते हुए बताया कि उसे तो अस्पताल की पर्ची बनवाकर अपनी बेटी को डाक्टर साहब को दिखाना है। उन सज्जन व्यक्ति ने उसे हाथ के इशारे से अस्पताल का गेट दिखाते हुए कहा कि-‘वहाँ सामने है वह अस्पताल ।’ 

अक्षर ज्ञान नही होने से आशाबाई को आज बहुत शर्मीन्दगी महसूस हुई। वह किसी से नजरें नही मिला पा रही थी। वह भारी मन से अपनी बेटी को लेकर अस्पताल की ओर बढ़ गई। इस घटना का बडा गहरा प्रभाव आशाबाई पर पडा था।  ज्ञान और शिक्षा का महत्व उसके मन पर पूरी तरह अंकित हो चुका था। वह समझ चुकी थी कि अब उसे क्या करना है।

अगले दिन कालोनी की आंटियाँ आशा बाई का इंतजार कर रहीं थीं लेकिन अभी तक वह काम करने नही आई  थी। हमेशा समय पर आने वाली आशाबाई को आज न जाने क्या हो गया था। कहीं ज्योति की तबीयत ज्यादा खराब तो नही हो गई। सब सोच ही रहे थे कि वह आती हुई दिखाई दी।

‘कैसी है ज्योति। ठीक तो है ना!’  सबकी चिंता जबान पर आ गई। आशाबाई ने कल की पूरी घटना सबको कह सुनाई। देर से आने की वजह जब आशाबाई  ने बताई तो सबके चेहरों पर खुशी फैल गई।  आज वह ज्योति को स्कूल मे भर्ती कराने गई थी ,कल से वह स्कूल जाएगी। फिर क्या था, कोई स्कूल बैग अपनी तरफ से देने का कह रहा था तो कोई युनिफार्म का खर्च उठाने को तैयार था ,कोई किताबों की व्यवस्था करने को राजी था तो कोई कहीं से फीस के बन्दोबस्त का आश्वासन दे रहा था। आज के समय मे ऐसा कम ही देखने को मिलता है लेकिन हमारी कालोनी की यही तो विशेषता थी।

ज्योति अपने जीवन को ज्ञान के  प्रकाश से रोशन करने की राह पर चल पड़ी थी। कुछ दिनो बाद पता चला आशाबाई ने भी शाम को चलनेवाली प्रोढ शिक्षा शाला मे जाना प्रारम्भ कर दिया था। परिवर्तन का शुभारम्भ शायद ऐसे ही होता है !

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