Hak hindi kahani: हरिया की देह पिछले छह घंटे से कोठरी में पड़ी थी। उसके नाते-गोतेदारों सहित शहर में बसे बड़ा और छोटा बेटा भी परिवार सहित आ चुके थे। आँगन में जमा लोग मैयत की तैयारी करने की बजाए, असमंजस की स्थिति में बैठे थे। वजह थी हरिया की वसीयत रूपी चिट्ठी। सरपंच, पंडित और प्रधान  आपस में उस चिट्ठी को लेकर विचार-विमर्श में व्यस्त थे। उनके चेहरे पर आने-जाने वाले भावों को सभी एक टक देखते हुए फैसले के इंतजार में थे। 

थोड़ी देर बाद सरपंच जी ने बोलना शुरू किया, “हरिया की चिट्ठी के मुताबिक, उसकी सारी संपत्ति का हकदार, मनकू होएगा। वह चाहे तो अपने दोनों भाइयों को अपनी इच्छा से कछू दे सकता है, पर बाध्य न होगा। पर उसकी दूसरी इच्छा रही कि उसकी चिता को आग मनकू देगा। इसका  क्या करें?” 

“वैसे तो हरिया, हमारे धर्म और समाज के रीति-रिवाजों को अच्छी तरह से जानता था, फिर उसने ये…”—पंडित जी ने बात अधूरी छोड दी और अफसोस जताते हुए सिर हिलाने लगे। फिर बोले, “अरे! माना कि उसके बड़े और छोटे दोनों बेटों ने अपने पिता के प्रति कोई जिम्मेदारी न निभाई। मझले बेटे मनकू ने ही सेवा की। इसलिये हो सकता है, प्रेमभाव वश उसे ये हक दे बैठा हो। पर हमारे धर्म के अनुसार ये ठीक ना है।”

 “इसलिए हम सब ने फैसला किया है कि मनकू चाहे तो संपत्ति में से अपने भाइयों को कछू दे या न दे, पर पिता की चिता को आग देने का हक तो बड़े बेटे का ही बनता है, इसलिए….।”

सरपंच जी अपनी बात पूरी कर भी न पाए थे कि मनकू बीच में ही बोल पड़ा, “ना, ना, सरपंच जी, ये फैसला मन्ने मंजूर ना है। आप चाहे तो संपत्ति में से  मेरे दोनों भाईयों नै भी हिस्सा दे दो, पर बापू की चिता को तो आग में ही दूँगा।”   

“पगलाय गया है क्या मनकू? तू ये क्या कह रहा है! बडे भाई के यहाँ होते हुए तू ये कैसे कर सकता है।”—सरपंच ने उसे घुड़की दी।

 “शास्त्रों में भी बडे बेटे द्वारा मुखाग्नि देने का विधान है, मंझले बेटे का ना है।”—पंडित जी ने बीच में टोकते हुए कहा। 

“सरपंच जी और पंडित जी, शास्त्रों में यह नहीं लिखा कि बड़े बेटे की माँ-बाप की सेवा की जिम्मेदारी है?…जिसने अपनी जिम्मेदारी ही ना निभाई उसका कैसा हक…और सबसे बड़ी बात मेरे लिए तो बस बापू की इच्छा ही ईश्वर की बानी है। बापू को आग तो मैं ही देऊँगा।” इतना कह मनकू पिता की अंतिम यात्रा की तैयारी में जुट गया।

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