यूं तो उनकी अपनी बखरी, दालान, घर क्या समूचे गांव को चौधराइन चाची की लगातार चलती जबान से तोप के गोलों से दगते संवादों को सुनने की आदत थी, लेकिन उस दिन वे जिस तरह  अजीब से सुर में चीखीं थीं कि घर में जो जहां था आंगन तक दौड़ा चला आया। यहां तक कि छोटे चाचा का परिवार भी छत की मुंडेर से टिक नीचे झांकने लगा, जबकि बहु को उनके खिलाफ बरगालने के झूठे आरोप लगाते हुए चौधराइन चाची ने छोटी चाची की जो लानत मलामत की थी कि सीधी साधी स्नेहिल छोटी चाची ने कसम खा ली थी कि अब वे आंगन की ओर झांकेंगी भी नहीं जब तक उनकी जिठानी ही किसी काम से उन्हें आवाज नहीं लगातीं।

चौधराइन चाची बखरी के कोने में खुली किवड़िया के सामने हाथ मे घी की भड़िया लिए भौचक्की सी खड़ी थीं। सब एक दूसरे का मुंह देख रहे थे किसी को माजरा समझ नहीं आ रहा था। आखिर मौन तोड़ते हुए चाचा ने कहा..”.का हुआ, पुत्तू की अम्मा, काहे चिल्ला रही रहौ।“

और चाची जैसे सोते से जागी और शुरू हो गईं धाराप्रवाह।

हुआ यूं था कि चाची दस दिन के लिए अपने मैके गईं थीं और उन दिनों की जरूरत भर का खाने बनाने का सामान बाहर निकाल बाकी सबमें ताला मार चाभी अपने साथ ले गईं थीं, लेकिन वापस आने पर उन्होंने पाया कि किवड़िया में ताला तो यथावत बंद था लेकिन भीतर घी की भड़िया लगभग खाली थी। बात केवल घी की नहीं थी असली मुद्दा तो चाची की एकछत्र सत्ता में लगी सेंध का था। उनके चाक चौबंद सुरक्षा इन्तजामों को धता बताने का था| चाची का हिल जाना तो स्वाभाविक था| पर यह हुआ कैसे यह किसी की समझ में नहीं आ रहा था।

तभी पीछे के दरवाजे से पानी की बाल्टी उठाए चिरैया भौजी आंगन में दाखिल हुई। लम्बी चौड़ी चाची के सामने खड़ी डेढ़ पसली की भौजी को देख सभी का कलेजा मुंह को आ रहा था कि दोष किसी का हो न हो पर गाज तो भौजी पर ही गिरेगी।

अचानक बखरी की चुप में चहकी भौजी की आवाज…”वो, अम्मा, आप न रहऔ घरै तो सूखी रोटी हमरे गले के नीचे न उतरत रहै। हम घी केर हलुआ बना के खाती रहन”…फिर थोड़ा रुक के धीमे से बोली “अउर साल भरे ते तो घी खाब तो दूर द्याखैं तक का तरस गई रहन।”सब जैसे किसी आशंका से भऱे थे पर हंसी थी कि होंठो के कोनों से फिसलने को बेताब।

तभी चाची संभल कर बोली,” पर तारा कैसे खोरेव.”…भौजी ने खुला ताला खट से दबा कर बंद किया और बालों से चिमटी निकाल खोल चाची के हाथ थमा दिया, जाने क्या था भौजी की उस भोली हरकत में कि चाची माथे पर हाथ मार हंस पड़ी और ताला किनारे फेंक भौजी को अपने से लिपटा लिया।

आंगन सबके सम्वेत ठहाकों से गूंज उठा।

‘’अरे छोटी, घी लै के उतर आओ तनि, आज हलुआ नीचे बखरीके चूल्हा मा हम बनइबै। आवा हो सब जने।” हंसती, गुनगुनाती चाची कढ़ैया में कलछुल चला रहीं थीं और साझे चूल्हे से उठती सोधी महक सबके मन को तृप्त कर रही थी।

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