शाम के सात बजे होंगे।टहलता हुआ मैं टावर की सातवीं मंजिल पर बने अपने फ्लैट की बालकनी में आया।अचानक एक विचित्र घटना घट गई।अज़ीब सा आवेग आया और मैं बालकनी की रेलिंग लाँघ सातवीं मंजिल से नीचे ज़मीन पर आ गिरा।
हालांकि मैं ऊपर ही था,लेकिन नीचे भी पड़ा था। तुरन्त ही पत्नी और बेटे को यह सूचना देने के लिए दौड़ा,लेकिन वे मेरी बात सुनना तो दूर, मेरी उपस्थिति तक को महसूस करने के लिए तैयार नहीं थे।लिफ्ट ठीक होने के बावजूद बदहवास-से वे सीढ़ियों से नीचे की ओर दौड़ रहे थे।मैं भी उनके पीछे हो लिया।
वहाँ मेरे पड़ोसी डॉक्टर ने मेरे शरीर की नब्ज़ चैक की,दूसरा-तीसरा मुआयना किया और मुझे ‘डैड’ घोषित कर दिया।रोना-धोना, अफरातफरी मच गई।दबी-दबी आवाजों में तरह-तरह की बातें होने लगी।अंधेरा हो चला था,इसलिए बुजुर्ग पड़ोसियों ने सलाह दी कि श्मशान घाट कल सुबह लेकर जायें।
मैं घबरा गया।इस देह के रहते मेरी उम्मीद अभी बाकी थी और इसके साथ मेरा चंद घण्टों का साथ रह गया था।मैं रोने लगा।मैं चाहने लगा कि अगले दो,तीन घण्टों में ही मेरा बारह वर्षीय बेटा जवान हो जाए और परिवार को संभाल ले।अगले इन्हीं घण्टों में ही बिटिया बड़ी हो जाए और मैं उसके विवाह की जिम्मेवारी पूरी होते देख लूँ।
परिजनों से ज्यादा तो मेरी सुबकियां बंधी हुई थी।मैंने अपनी सम्पत्ति का हिसाब लगाया कि यदि एक हजार रुपये में एक साँस के हिसाब से भी डील हो जाए तो मुझे मंजूर है।मैंने इस डील की उम्मीद में ऊपर आसमान को देखा,लेकिन वहाँ सब आम दिनों की तरह ही सामान्य था।अब समझ में आया कि यदि एक साँस की कीमत एक हजार रुपये भी लगाई जाए तो ऊपर वाले की तरफ से कितनी नज़रे-इनायत मुझ पर हुई थी।फ्लैट, कार,बैंक बैलेंस सब यहीं धरा रह गया था।क्या करूँ?ज़िंदग़ी की और समय की अहमियत अब समझ में आ रही थी।
दौड़कर ऊपर फ्लैट में अपनी अल्मारी तक गया और कुछ याद आते ही अपने आप को कोसने लगा।न मेडिक्लेम करवा रखा था और न ही जीवन बीमा।मुझे तो मरना भी नहीं आया।
कैसे शक्ति बनूँ अपनी रोती हुई पत्नी की?मैं उसे समझाना चाहता था कि अब वह इस पूरी परिस्थिति को किस तरह से संभाले।वह मेरी ओर देखने लगी और फिर उसका स्वर सुनायी दिया-“अब उठो,आठ बज गए हैं।आज सण्डे है तो क्या सोते ही रहोगे?चाय यहाँ मेज पर रख दी है।”
तुरन्त मेरी आँखें खुल गई,लेकिन अब मैं ‘जाग’ चुका था।
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