अस्सी वर्षीय शन्नो देवी चुपचाप अपने कमरे में लेटी लगातार छत पर लगे पंखे को घूर रही है ।उसके अंदर ,बाहर सब ओर एक सन्नाटा है ।कहने को उसके साथ बेटे, बहू ,पोते पोतियों का भरा पूरा परिवार है ।पति की मृत्यु के पश्चात और अस्वस्थता के कारण उसका बाहर आना जाना और सखी सहेलियों से मिलना सब बंद हो गया है ।
बेटे के पास चार कमरों का बड़ा सा फ्लैट है लेकिन उसे अपने कमरे तक ही सीमित रहने के लिए कहा गया है ।नाश्ता एवं दो समय का खाना, नौकरानी के हाथ वही पहुंचा दिया जाता है। एक, दो बार उसने बाहर आ बहू और बच्चों के साथ बैठ उनकी बातों का आनंद लेने का प्नयत्न भी किया लेकिन “अम्मा तुम्हारे कपड़ों से तेल की बास आती है” यह कह कर उसे कमरे में वापिस भेज दिया गया । वह बेचारी भी क्या करे , घुटनों के दर्द के कारण उसे दिन में दो,तीन बार तेल लगाना ही पड़ता है।
कभी-कभी उसका हृदय आक्रोश से भर जाता है और वह बेटे से कहना चाहती है “तुम ही नहीं तुम्हारे बच्चे भी ,जब छोटे थे तो उनके मल की दुर्गंध को तो मैंने वर्षों सहा और उफ तक नही की” लेकिन उसके शब्द उसी से लिपटकर खामोश हो जाते हैं । वह जानती है उसका सच बोलना उसके तीन समय के खाने पर भारी पड़ सकता है। आज उसे अपनी दिवंगत सखी कमला याद आ रही है और उसके शब्द बार-बार कानों में गूंज रहे हैं “शन्नो अकेलापन भी तो एक प्रकार का ‘स्लो प्वाईज़न’ ही है और यह मीठा जहर धीरे-धीरे हमारे अपने ही तो हमें देते रहते है ।
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