“मैं आज शाम से ही देख रहा हूँ.. आप बहुत गुमसुम हो अम्मी! कहिए ना क्या मामला है?”
“हाँ! बेटे मैं भी ऐसा ही महसूस कर रहा हूँ.. बेगम! बेटा सच कह रहा है। तुम्हारी उदासी पूरे घर को उदास कर रही है.. अब बताओ न।” शौकत मलिक ने अपनी बीवी से पूछा।
“कल रविवार है.. हमारे विद्यालय में बाहरी परीक्षा है। आन्तरिक(इन्टर्नल) में जिसकी नियुक्ति थी उसकी तबीयत अचानक नासाज हो गई है। उनका और प्रधानाध्यापिका दोनों का फोन था कि मैं जिम्मेदारी लेकर अपनी उपस्थिति सुनिश्चित करूँ।”
“यह जिम्मेदारी आपको ही क्यों .. और शिक्षिका तो आपके विद्यालय में होंगी?” बेटे ने तर्क देते हुए पूछा।
“ज्यातर बिहारी शिक्षिका हैं। आंध्रा में बिहार निवासी दीवाली से पूर्णिमा तक पर्व में रहते कहाँ हैं।” मिसेज मलिक की उदासी और गहरी हो रही थी।
“चिंता नहीं करो, सब ठीक हो जाएगा।”बेटे ने कहा।
“हाँ! चिंता किस बात की। अपने आने में असमर्थता बता दो कि माँ का देखभाल करने वाली सहायिका रविवार की सुबह चर्च चली जाती है तुम्हारा घर में होना जरूरी है।” पति मलिक महोदय का फरमान जारी हुआ। सहमी सहायिका भी लम्बी सांस छोड़ी।
“कैसी बात कर रहे हैं पापा आप भी? अगर आपके ऑफिस में ऐसे कुछ हालात होते तो आप क्या करते?”
“मैं पुरुष हूँ पुरुषों का काम बाहर का ही होता है।”
“समय बहुत बदल चुका है। बदले समय के साथ हम भी बदल जाएं। कल माँ अपने विद्यालय जाकर जिम्मेदारी निभायेंगी। सहायिका के चर्च से लौटने तक घर और दादी को हम सम्भाल लेंगे।”
“बेटा! तुम ठीक कहते हो… घर चलाना है तो आपस में एक दूसरे की मुश्किलों को देख समझकर ही चलाना होगा.. तभी जिंदगी मज़े में बीतेगी…।”
इतने में उनकी नज़र पिंजरे में बंद पक्षी पर जा पड़ी जो शायद बाहर निकलने को छटपटा रहा था.. पिंजड़ा को खोलकर पक्षी को नभ में उड़ाता बेटे ने कहा,-“सबको आज़ादी मिलनी ही चाहिए।”

(Visited 1 times, 1 visits today)

Republish our articles for free, online or in print, under a Creative Commons license.