थकी-हारी शकुन बस से उतरते ही कोलतार की पिघलती सड़क पर लगभग सरकते हुए अपनी सोसायटी के गेट पर पहुँची। गार्ड ने उसे रोका -“बी जी, खत आया है आपका। ऊपर फ़्लैट पर कोई था नहीं, सो डाकिया मुझे दे गया।”  

शकुन ने पत्र लिया और हाथ में झुलाते हुए फ़्लैट की ओर मुड़ गयी। दरवाजा खोलते ही उसकी आह-सी गर्म हवा से उसका सामना हुआ। बैग को मेज पर रख कर वह सोफे पर धम्म से बैठ गयी। 

…. फ़्लैट पर कोई हो तो होगा न !  … पिता की मौत के बाद माँ व छोटी बहन की जिम्मेदारी…. कस्बे से शहर में नौकरी … सुबह से शाम वही रूटीन … सोचने का समय ही नहीं मिला … तभी दरवाजे की घंटी से उसकी तंद्रा भंग हुई। काशीबाई आई थी। 

वाशबेसिन पर पहुँच आँखों पर छींटे मारते हुए काशी को चाय के लिए कहा और माँ का खत खोला। पत्र खोलते ही माँ की आड़ी तिरछी लाइनें उसे स्पष्ट हो उठीं। 

… लुधियाना से रिश्ता आया है। विधुर है, बहुत बड़ी उम्र का नहीं है। अब भी सोच लो लाडो ! पूरी जिंदगी सामने पड़ी है तेरी। कौन करेगा तेरा …. ?

कितनी बार कहा है माँ को “अब और नहीं।” उस समय नहीं सोचा शादी का तो अब क्या ?

वह उठी और कुछ सोचकर मेज पर जा बैठी पत्र लिखने —

“माँ ! बस अब और नहीं। क्या मैं इसी लायक हूँ ? अब शादी नहीं करूंगी। यह मेरा निश्चय है।  हाँ, सुरेखा की शादी समय से होगी। पढ़ लिख गयी है। नौकरी भी करने लगी है। उसके लिए एक अच्छा सा रिश्ता ढूंढो। बस … ।” 

खिड़की के पार बिछे विशाल लॉन में लगे बरगद के पत्ते मुरझाने लगे थे। 

उसकी उम्र चालीस पार कर रही थी। 

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