Rok Hindi Short Stories: “माँ तू इसको कुछ कहती क्यों नहीं हैं?”प्रताप घर में प्रवेश करते ही ज़ोर से चीखता हुआ माँ के पास आया।
“अब क्या हुआ?”
माँ ने किचन में आटा गूंधती बेटी पर एक उचटती सी नज़र डालते हुए बेटे से पूछा।
“मुझसे क्या पूछ रही हो इस से पूछो न?”
प्रताप गुस्से से कांप रहा था।
माँ ने पानी का गिलास बेटे को पकड़ाते हुए किचन के सामने ही पड़ी डाइनिंग टेबल की कुर्सी खिसकाकर बेटे को बैठाया और बोली,
“पहले तू शांत हो कर बैठ! फिर बताना, बात क्या है?”
“ये दीदी फिर धरने में गई थी। इसको बोलो न इन सब कामों में क्यों पड़ती है?”
प्रताप ने खीज भरे स्वर में बोलते हुए बहन को घूरा जो बड़े इत्मीनान से अपने आटे सने हाथों को सिंक के नल की पतली धार से मसल-मसलकर धो रही थी।
“कॉलेज प्रेसीडेंट है!उसका फ़र्ज़ है अपने साथियों की समस्या का अपने ढंग से निवारण करना।”
माँ ने बात खत्म करने की गरज से कहा और किचन की ओर बढ़ चली।
“सबरीमाला मंदिर में प्रवेश की पाबन्दी के ख़िलाफ़ धरना देना भी फ़र्ज़ है क्या इसका?”
प्रताप के क्रोध का जैसे लावा फूट गया।
माँ ने चौंक कर बेटी की ओर देखा।
“कोई दहेज़ का केस हो तो इसका धरना प्रदर्शन, कहीं कोई बलात्कार या कोई छेड़छाड़ हो जाए इसका धरना प्रदर्शन….। अब की बार तो इसने हद कर दी, धार्मिक मसलों में भी उलझ रही है।”
प्रताप एक ही सांस में बोलता चला गया।
दोनों की बहस के स्वर अंदर के कमरे तक पहुंचे तो दादाजी भी पहले भीतर से ही सुनते रहे जब रहा न गया तो बाहर निकल कर आ खड़े हुए।
” क्या बात है घर को अखाड़ा क्यों बना रखा है तुम लोगों ने?”
दादा जी अपनी छड़ी टिकाते आँगन तक आ खड़े हुए।
“समस्या कोई भी हो मेरा फ़र्ज़ है अपने लोगों का साथ देना। और ये मैंने आपसे ही सीखा है दादाजी।” गीले हाथों को तौलिया से थपथपाकर पोछती हुई लड़की ने भाई के कंधे पर समझाने वाले अंदाज़ में हाथ रखते हुए उत्तर दिया और दादाजी की ओर देखने लगी।
“तो कॉलेज तक रह न!आज सबरीमाला मंदिर है तो कल शनिदेव मंदिर है इन सबसे तेरा क्या लेना देना है?”
“बात तो सही है यह सब तो विश्विद्यालय में नही होना चाहिए बेटा।”
“ये नहीं समझता है कोई बात नही पर आप भी दादू?”लड़की का स्वर लड़खड़ा गया था।
“अपने शहर के सारे मंदिर देख लिये हैं क्या?तूने और तेरी उन साथियों ने! बात करती है केरल और महाराष्ट्र के मंदिरों की।” प्रताप के स्वर में बेहद कड़वाहट थी।
“बात सिर्फ़ मंदिर मस्ज़िद में जाने की नहीं है!तू हमारी घुटन नहीं समझेगा।”
बहन का स्वर अब भी संयत था,किन्तु आँखे छलक जाने को तत्पर।
” मुझे समझा बेटी! शरीर बूढ़ा है पर दिमाग अब भी युवा है मेरा!आज़ादी की लड़ाई में सक्रिय भागीदारी की है तेरे दादा ने”
दादाजी ने बहस रोकते हुए तेज़ स्वर में कहा। “बात छोटी सी है, दादू! बिलकुल वैसा ही अहसास होता है जैसा आपको हुआ करता था, ‘इंडियंस एंड डॉग्स आर नॉट अलाउड’ पढ़कर…।
Republish this article
This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NoDerivatives 4.0 International License.