Phir se short story: विनोद बाबू अखबार का पन्ना पलट रहे थे कि फोन की घण्टी बज उठी ।
फोन उठाया । उधर अजय था ।
” बोलो बेटा ।”
” पापा …..।”
” बोलो ना । क्या कहते .कहते रुक रहे हो । क्या बात है ?”
” इस बार से मुश्किल हो जाएगा ।”
” क्या मुश्किल हो जाएगा ?
” हमने यहाँ किश्तों पर कार खरीद ली है …….आपको जो भी भेज पा रहा था , वह अब मुश्किल हो रहा है ….।
” ठीक है । कोई बात नहीं ।”
” लेकिन मुझे चिंता हो रही है ।”
” तुम किश्त अदा करते रहना । उसकी चिंता रखना ।”
” नहीं, फिर भी आप क्या करेंगे ?”
” मैंने कहा न, तुम उसकी फिक्र छोड़ दो । पेंशन से काम चला लेंगे । पास में नया स्कूल खुला है । नौकरी मिल जाएगी ।”
” हाँ, पापा यह ठीक रहेगा । नौकरी से आपका भी टाइमपास हो जाएगा ….मां कहाँ हैं ?
” पूजा कर रही है ।”
” ठीक है … प्रणाम ! …फोन रखता हूँ ।”
विनोद बाबू ने फोन रख, गहरी सांस ली । कुर्सी पर सिर टिकाया । मन ही मन अपने झूठ पर मुस्करा उठे । वे जिस स्कूल की बात कर बेटे को बेफिक्र कर चुके थे उसका कोई अस्तित्व नहीं था ।
उन्होंने अखबार उठाया ।
उनकी आँखें नौकरी के विज्ञापन वाले पृष्ठ पर दौड़ रही थी । अड़तीस साल पहले भी तो उन्होंने ऐसे ही नौकरी तलाश की थी ।
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