द्वारिका जहाँ भी जाता उसे अक्सर यही सुनने मे आता कि सबके ऊपर माँ – बाप का कर्जा होता है और कोई भी उससे उऋण नहीं हो पाता ! सुनकर उसे यह बात बड़ी अजीब सी लगती कि आखिर मे उनका ऐसा भी क्या ……….. ।
पिताजी बहुत साल पहले स्वर्ग सिधार चुके थे , सम्भवतः तब वह दो ढाई साल का ही रहा होगा । माँ ने अपने पाँच बच्चों का पालन पोषण कैसी गरीबी मे किया आज भी याद कर आँखें गीली हो जाती हैं !
माँ अपना बुढापा एन केन प्रकार से अपने पुस्तैनी मकान मे रहकर ब्यतीत करती हैं । दोनों समय भोजन पड़ोस के मकान से द्वारिका के परिवार से मिल जाता है । टूटी खटिया मे लेटकर तो कभी बाहर बैठकर जीवन के शेष दिन बीतते जा रहे थे ।
एक दिन द्वारिका ने आकर कहा – ” माँ मैं अपने सिर से तुम्हारे कर्जे का बोझ उतारना चाहता हूँ , सब कहते हैं कि माँ – बाप का………. मै इस मिथक का अपबाद बनकर ……….।” माँ ने हामी भर दी ।
पर मैं कैसे कर उस कर्जे को उतारूँ माँ ! तरीका तो आपको ही बताना होगा क्यों ?- द्वारिका ने जिज्ञासा व्यक्त की ।
हाँ – हाँ क्यों नहीं कर्जा मेरा उतारना है उपाय भी मुझे ही बताना पड़ेगा – झुर्रियों से भरे चेहरे पर हल्की सी मुस्कान लाते हुये माँ ने कहा ।
हाँ तो फिर कहो भी कि मुझे करना क्या है – मातृभक्ति के ताव मे आकर द्वारिका बोला ।
आज रात से सेवा करने के लिये तू मेरे साथ सोयेगा , ठीक है ? – सरसरी तौर पर माँ ने बेटे को निहारते हुये कहा ।
बेटे ने भी बात को सहर्ष स्वीकार कर भोजन के पश्चात रात्रि शयन के लिये कक्ष मे आकर माँ की खटिया के पास बिस्तर बिछाकर जमीन पर सो गया ।
थोड़ी देर मे माँ बोल उठी – बेटा मेरा जी कुछ मचल सा रहा है मुझे बाहर ले चल !
मातृ भक्त की भूमिका निभाते हुये बेटा माँ को बाहर ले गया । पूस के महीने की ठण्ड वदन खाये जा रही थी , बड़ी देर तक बाहर खड़े – खड़े दाँत खट् – खट् और तन थर्र – थर्र काँपने लगा था ।
माँ ने कहा – कुल्ला करने के लिये एक लोटा पानी लाना । बेटा अन्दर जाकर जैसे ही गगरी से पानी निकालने लगा ,कुछ पानी उसके बिस्तर पर भी गिर गया दिमाग पर एक चोट सी पड़ी । कुल्ला करवाकर हाथ पकड़ माँ को खटिया तक लाया ।
एक हिस्सा गीला होने से दूसरी ओर जाकर वह सो गया , बड़ी देर मे जैसे ही उसकी आँख लगने लगी माँ ने फिर से जगाया – द्वारिका ! पता नहीं गला क्यों सूख रहा है एक गिलास पानी…….!!
मन ही मन मे गुस्सा तो बहुत आया लेकिन करे तो करे क्या बेचारा , चुप रहा माँ का कर्जा जो चुकाना है उसे । उठकर पानी का गिलास भरकर हाथ मे थमाया । मुश्किल से दो घूँट पी होंगी काँपते हाथों से गिलास छूटकर सीधे द्वारिका के बिस्तर पर जा कर रुका ! अब तो उसके धैर्य का बाँध टूट पड़ा और गुस्से को सातवें आसमान पर चढ़ाकर बोल उठा – ” भाड़ मे जाये तेरा कर्जा ………….अब बताओ ! कहाँ सोऊँगा मै ? सारा का सारा बिस्तर ……….! लैम्प भी बुझाने नहीं दे रही है ! मुझे तो उजाले मे नींद ही नहीं ……..।”
बेटे को आग बबूला हुआ देखकर माँ बोली – ” बड़ा चला आया माँ का कर्जा उतारने ! एक रात तो रही दूर कुछ घण्टों मे ही ………। तेरा बिस्तर स्वच्छ पानी से गीला हुआ , कुछ घण्टों की नींद खराब हुई ,………. जब तू बर्षो तक अपने मल – मूत्र से बिस्तर को गन्दा और गीला करता रहा तब मैं सूखे और स्वच्छ जगह पर तुझे सुलाती और स्वयं गन्दे – गीले मे रहकर रातें गुजारती ! बीमार होने पर कन्धे मे उठाकर डॉक्टर के पास ले जाती !
रुपये न रहने पर गिरबी मे अपने……… कर्जा लाकर इलाज ………. , अपने तन का रस पिलाकर बड़ा किया , घर मे खाने को जब कुछ न होता एनकेन प्रकार तुम्हारा पेट भरकर खुद भूखी सो जाती पर लगता मानों मेरा पेट भर गया है !!……….। माँ – बाप का कर्जा चुकाना यदि इतना सरल होता जैसा तू समझ बैठा है तो शायद ही किसी पर …………।”
माँ बरसाती नदी के प्रवाह के समान बोलती जा रही थी और बेटा सरीफ विद्यार्थी की तरह सिर नीचे झुकाये हुये सुनता जा रहा था ।माँ की बात के एक – एक शब्द से उसका तन – मन भीगता जा रहा था । पितृऋण की गहराई को समझ कर उसका माथा शर्म के मारे माँ से आँख मिलाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था।
पता भी नहीं चला कि कब रात खुली । हारे हुये सैनिक की तरह सिर झुकाकर द्वारिका दबे पाँव माँ के कमरे से बाहर निकला ।
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