दिल्ली दंगे का ताप इस छोटे शहर के सिर पर भी चढ़ चुका था।
वे तीन थे जो रोज शाम को मिलते थे, हंसते- बतियाते थे। चाय -साय चलता था। टाटा बाई करते हुए वे अपने घर की राह पकड़ते थे।
आज भी तीनो मिले। बात पर बात चली। बात का रुख न जाने कब सम्प्रदाय, धर्म, अधिकार, नागरिकता आदि जंजालों की ओर मुड़ गया। उनके बीच आवाज का वॉल्यूम तेज होता चला गया। वे जोर जोर से चीखने लगे।
बीच का तीसरा आदमी उन्हें रोकता रह गया। लेकिन वे कहाँ रुकने वाले थे!
कल तक वे इंसान थे। आज हिन्दू मुसलमान बन चुके थे।
(Visited 1 times, 1 visits today)
Republish this article
This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NoDerivatives 4.0 International License.