हमारी चीज़ों को चाहे बहुत कम लोग पढ़ें किन्तु हम बहुत कम लोगों के लिए लिखते हैं। मैं जिन लोगों को ध्यान में रखकर लिखता था, उनमें रेणु सबसे प्रमुख थे। मैं हमेशा सोचता था, पता नहीं मेरी ये कहानी, यह लेख, उपन्यास पढ़कर वह क्या सोचेंगे।
यह ख्याल ही मुझे कुछ छद्म और छिछला, कुछ दिखावटी लिखने से बचा लेता था। कुछ लोग हमेशा हम पर सेंसर की तरह काम करते हैं- सत्ता का सेंसर नहीं, जिसमें भय और धमकी छिपी रहती है- किन्तु एक ऐसा सेंसर जो हमारी आत्मा और ‘कॉन्शंसÓ, हमारे रचना-कर्म की नैतिकता से जुड़ा रहता है। रेणु जी का होना, उनकी उपस्थिति ही एक अंकुश और वरदान थी। जिस तरह कुछ साधु-संतों के पास बैठकर ही असीम कृतज्ञता का अहसास होता है, हम अपने भीतर धुल जाते हैं, स्वच्छ हो जाते हैं, रेणु जी की मूक उपस्थिति हिन्दी साहित्य में कुछ ऐसी ही पवित्रता का बोध कराती थी।
वह समकालीन हिन्दी साहित्य के संत लेखक थे। यहां मैं संत शब्द उसके सबसे मौलिक और प्राथमिक अर्थों में इस्तेमाल कर रहा हूं- एक ऐसा व्यक्ति जो दुनिया की किसी चीज़ को त्याज्य और घृणास्पद नहीं मानता- हर जीवित तत्व में पवित्रता और सौंदर्य और चमत्कार खोज लेता है- इसलिए नहीं कि वह इस धरती पर उगने वाली कुरूपता, अन्याय, अंधेरे और आंसुओं को नहीं देखता, बल्कि इन सबको समेटने वाली अबाध प्राणवत्ता को पहचानता है; दलदल से कमल को अलग नहीं करता, दोनों के बीच रहस्यमय और अनिवार्य रिश्ते को पहचानता है।

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