दिसंबर का महीना था। कड़ाके की ठंड पड़ रही थी। विवेक जब ऑफिस से घर पहुँचा, तो उसने देखा बच्चों के साथ हॉल में सोफे पर स्वेटर पहनकर बैठे टीवी देख रहे उसके पिता ठंड से ठिठुर रहे थे। विवेक ने एक दिन पहले अपने लिए लाए गरम जैकेट को तुरंत अपने कमरे से लाकर उन्हें दे दिया, और जब वह अपने कमरे में गया तो उसके पीछे-पीछे उसकी पत्नी किरण भी गई और कमरे में पहुँचते ही उसने विवेक से कहा –“आपने अपना नया जैकेट उन्हें क्यों दे दिया। उनके पास स्वेटर हैैैै तो।”
विवेक ने शर्ट उतारते हुए कहा–“तुमने देखा नहीं, स्वेटर पहने हैं फिर भी ठंड से ठिठुर रहे थे ?”
“तो क्या हुआ, घर में ही तो रहते हैं, कहीं बाहर तो जाते नहीं ?”
“किरण ! तुम समझती क्यों नहीं ? जब हमें तेज ठंड लग रही है तो उन्हें तो लगेगी ही। सत्तर साल की उम्र जो हो गई है।”
“मैं सब समझती हूँ। आपको उन्हें जैकेट नहीं देना था। पहले ही घर में पैसों की तंगी चल रही है। दूसरा जैकेट भी नहीं लासकते।” किरण ने मुँह बनाते हुए कहा।
“किरण ! अभी तो मेरा काम पुराने स्वेटर से ही चल जाएगा।”
” वे घर में रहेंगे, फिर भी नया जैकेट पहनेंगे ? वाह…” किरण ने कुढ़ते हुए कहा।
“किरण ! तुम जानती नहीं हो। ठंड से मुझे बचाने के लिए पापा महंगा स्वेटर या जैकेट लाकर देते थे, लेकिन खुद पुराना घिसा-पिटा स्वेटर पहनते थे।” इतना कहते-कहते विवेक का गला भर आया। थोड़ा रुक कर वह फिर किरण की तरह नम आँखों से देखते हुए बोला– “अब तुम्हीं बताओ किरण ! जब वे अपना फर्ज निभाने में पीछे नहीं हटते थे, तो क्या मुझे अपने फर्ज से मुँह मोड़ लेना चाहिए ?”
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