गौरैया जी-जान से अंडे को सेती रही। चाहे वह आँगन की मुँडेर पर चहचहाती होती,बगीचे में फुर्र-से उड़कर दाना चुगती होती अथवा पंख फड़फड़ाकर बालू में नहा रही होती-हर पल उसके दिल-दिमाग में अपने अंडे की चिंता ही समाई रहती थी। वह उस दिन की बेताबी से बाट जोह रही थी,जब अंडे से बच्चा निकलकर उसके घोंसले में चहचहा उठेगा।

आखिर वह घड़ी आ ही गई। अब गौरैया बड़े यत्न से दाने को चोंच में दबाकर लाती और ‘चीं-चीं’ करते हुए बच्चे को चुगाने लगती थी। बच्चे को निरखकर उसका मन बार-बार उमग-उमग उठता था।

मगर अचानक गौरैया के अंतर्मन में उदासी के बादल मँडराने लगे। एक अनजाने भय से अब वह बार-बार थरथरा उठती थी।

पड़ोसन गौरैया ने उदासी की वजह जानने की गरज से पूछा,”बहन! अब तो तुम्हारे बच्चे को पंख भी लग गये। आज तो वह खुद ही फुदक-फुदककर दाने भी चुग रहा था। फिर भी तुम इतनी उदास क्यों रहती हो?” “यही तो उदासी की वजह है,बहन!” गौरैया ने डबडबाई आँखों से बेचारगी टपकाते हुए जवाब दिया, “अब उसका क्या भरोसा कि पढ़-लिखकर शहर में भागते गँवई बेटों की तरह वह भी कब हमें दगा देकर दीगर घर बसाने के लिए उड़न-छू हो जाये!”

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