उस शहर के उस मैदान में सजे शामियाने के अंदर, माइक पर अपने फुग्गे सँवारता एक व्यक्ति भाषण से मजदूरों की अथक-अकथ मेहनत का गुणगान कर रहा था। उनकी तारीफ में आकाश के कुलाबें मिला रहा था। 

   उसने पक्का एक घण्टा भाषणामृत से पूरी भीड़ से जयजयकारे लगवाए थे। मंच पर कई पँखे उसके पसीने सुखाने के लिए लगाए गए थे। पँखे उसके गर्म भाषण की भीषणता को ठंडा कर रहे थे। 

   राकेसवा अपनी गर्भवती पत्नी, बच्चे तथा अन्य पन्द्रह साथियों के साथ पसीने से तरबतर हो, बगल के अधबने मकान की छत ढाल रहा था, जेठ की भयंकर  दुपहरी… चिलचिलाती-चीखती धूप! सीमेंट, बालू, गिट्टी की गर्मी अलग। 

   वह भाषण झाड़नेवाला एक-डेढ़ घंटे बाद अपनी लंबी सी खूबसूरत ए. सी. गाड़ी में फुर्र…। उसने एक निगाह भी इन लोगों पर डालने की जरूरत नहीं समझी। उस पर भाषण की खुमारी तारी थी न। और लोगों का भी कहाँ ध्यान। नमकीन पसीने की गंध से उन सबका क्या वास्ता! 

कहना ना होगा, यह 1 मई था। 

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