‘प्राची, अपनी देह का त्रिभंगी आकार देखा है – झुके हुए कंधे, बढ़ी हुई तोंद, गर्दन-गले की उभरी हुई हड्ड़ियाँ, टेढ़े-मेढ़े कटे हुए नाखून और बाल ऐसे जैसे बालू में से निकाले गए हों। उफ! तेरे हाल पर रोना आ रहा है।क्या किसी नाटक में विदूषक का रोल करती है?कल तक अपनी सुडौलता के लिए जानी जाने वाली इस कली की आज यह दशा? शहर में एक-से-बढ़कर एक ब्यूटी पार्लर, जिम सेंटर,…. और…..मौजूद हैं। लेकिन जब कोई अपने तन से दुश्मनी पर उतर आए तो किया क्या जा सकता है? सौंदर्य की हत्यारिन! गावदी! ज़िंदगी को बट्टे-खाते क्यों लिख बैठी?’आँखों में तरस का भाव लिए, शुभी एक सांस में सब कह गई। प्राची के होठों पर हँसी किसी नन्ही गिलहरी की तरह फुदकने लगी, ‘सखी, प्लेटफॉर्म आ चुका है; शब्दों की गाड़ी का ठहराना बनता है। वैसे तुम्हारी ज़ुबानी अपना हुलिया जानकर रोमांच हो रहा है, अपने शब्दों की कुदाल से सब खोद डालो, सम्भव है, गुप्त खजाना मिल जाए।तुम कैसे भूल गई अपनी कही बात को कि वर्तमान से न्याय करना है तो भूलकर भी भूतकाल के घर में ताका-झाँकी नहीं करनी चाहिए। मेरी शुभचिंतक! तुम यह सब कहकर एक ओर हुई मगर ऐसा करने से मिलने वाले सुख का अहसासतो नहीं कर पाई। करती भी कैसे? केंचुल उतार फेंकने का सुख तो साँप ही जानता है न।’
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