Drshtibhed: “माई-बहिनी करिहें दान, धरमी के धन दऽ भगवान!”

ज्योंही उसकी करुण रस में सनी आवाज माहौल में पसरी, तिमंजिली कोठी से रोटियों के टुकड़े पहले उसके सिर पर गिरे,

फिर जमीन पर छितरा गये। उसे लगा जैसे उसे किसी ने एक जोरदार झापड़ रसीद कर दिया हो। देशी घी में चुपड़ी रोटियाँ धूल से सराबोर हो गई थीं। जब उसने अपनी नज़रें ऊपर उठाईं तो तिमंजिले पर खड़ी मालकिन की आँखों में उसे अपने प्रति दया के नहीं, बल्कि उपेक्षा के भाव तैरते दिखाई दिए।

कुत्ते-सा झपट्टा मारकर रोटियों के धूल-धूसरित टुकड़ों को सहेजते हुए ज्योंही वह आगे बढ़ा, सामने की झोपड़ी से हड्डियों के ढांचे-सी एक काया अचानक उभरी। औरत के चेहरे पर अनेकानेक झुर्रियाँ असमय ही उभर आई थीं। औरत ने अपने हाथ की बाजरे की एक लिट्टी उसके आगे बढ़ा दी,

“इसे बगल में बैठ के खा लीजिए ना! ठहरिए,थोड़ा-सा गुड़ है,लिए आती हूँ–एक लोटा पानी भी–” और वह गुड़-पानी लाने की खातिर झोपड़ी के अंदर समा गई।

वह औरत को अंदर जाते देखता रहा। फिर 

भाव-विभोर-सा होता हुआ उस बाजरे की लिट्टी पर ही ताबड़तोड़ चुंबन जड़ने लगा।

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