जाड़े की कुनकुनी धूप में एक चारपाई पर बृद्धा बैठी, कड़कड़ाती सर्दी को दूर भगाने का असफल प्रयास कर रही थी । वहीं एक सात-आठ वर्ष की बच्ची बैठी गणित हल करने का प्रयास कर रही थी । उसकी माता जमीन पर आसनी बिछाये सब्जी काटने में लीन थी । तभी एक आधुनिका सहेली आ धमकी ।

‘‘हाय उमा । कैसीहो ?देखो मैं कहाँ-कहाँ से तुम्हारा पता ठिकाना ढूंढ़ती तुम तक आ पहुँची हूँ ।’’

‘‘अरे इला तुम!’’ प्रसन्नता उमा के चेहरे पर खिल उठी ।

‘‘अरे उमा, कैसी लग रही है तू ?एकदम गृहस्थिन जैसी । काॅलेज में तो कितना एक्टिव रहती थी ।’’ बैठते हुये इला बोली ।

‘‘मेरी छोड़, अपनी सुना।’’ उमा ने बात बदली और दोनों सहेलियाँ पुरानी यादों के झूले में झूला झूलने लगीं । इस बीच वृद्धा को बार-बार खांसी आती जिससे बच्ची का मन पढ़ाई से उचटता, साथ ही दोनों सहेलियों की वार्ता में भी बाधा पहुँचती ।

आधुनिका इला जब सब्र नहीं कर सकी तो बोली ।

‘‘उमा, तू अपनी सास को गाँव क्यों नहीं भेज देती । देख कितना खाँसती हैं । बिचारी तेरी बेटी पढ़ भी नहीं पा रही और तुझे अपनी बच्ची को उसकी दादी से थोड़ा दूर रखना चाहिए । लगता है उन्हें दमा है ।’’

‘‘ये मेरी सास नहीं, मेरी माँ है इला । तू बैठ मैं चाय लाती हूँ  ।’’ कहती हुई उमा उठने लगी ।

‘‘तूने पहले क्यों नहीं बताया । मैं चलती हूँ  । मुझे कुछ काम याद आ गया ।’’ असंयत सी इला भी उठ खड़ी हुई ।

 ‘‘क्षमा कीजियेगा माँजी मुझसे भूल हो गई।’’ कहती हुई इला जैसे आई थी वैसे ही चली गई ।

डबडबाई आँखों के साथ बृद्धा, सास और माँ के बीच की इस भूल को समझने का प्रयास करने लगी ।

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