सीढ़ियाँँ चढ़ती जैसे ही मैं छत पर पहुँची, इधर से उधर बलखाती गिलहरियाँ, आपस में बतियाते कबूतर और ऊपर आसमान में चमकता सूरज अपनी बुलंदियों पर था। अहा! कितना मनोरम दृश्य था।
अचानक मन में ख्याल आया, क्यों न कैद कर लूँ इन सबको अपने कैमरे में…।
फोकस बनाया ही था कि एक कबूतर महराज मुंडेर पर बैठे कनखियों से मेरी ओर देख रहे थे। मैं ठिठक गयी, मैंने उससे पूछा, “ऐ कबूतर! तनिक बताओ तो, तुम मुझे इस तरह से क्यों देख रहे हो?”
उसने गर्दन मटकाते हुए आँखें मिचमिचाईं।
मैं फिर बोली, “देखो, मैं धूप सेकने आई हूँ। क्या तुम भी अपने पंखों को धूप दिखा रहे हो? अच्छा, छोड़ो तुम न समझोगे मेरी ये सारी बातें।”
उसने भी जैसे मुझे इग्नोर किया।
मैं फिर बोल उठी, “वैसे दोपहर भर तुम्हारी गुटरगूँ मुझे बहुत डिस्टर्ब करती है और सुना है कि तुम वजन में बहुत भारी होते हो?”
इस बार उसने अपने पंख फड़फड़ाए। मुझे लगा कि जैसे शायद वह कह रहा था कि, “भारी तो तुम इंसान हो इस धरती पर और हम परिंदों पर। न तो तुमने पेड़-पौधे छोड़े। ऊपर से चारों तरफ प्रदूषण फैला रखा है। त्योहारों पर तो माइक लगाकर, न जाने क्या-क्या फुल वाॅल्यूम में बजाते रहते हो। अब तुम्हीं बताओ, कौन किसको डिस्टर्ब करता है? और कौन किस पर भारी है?”
मैं हैरान थी, अरे! ये तो सब कुछ समझता है।
उसने फिर अपनी गर्दन मटकाई, जैसे वह कह रहा था कि “तुम तो मन के पंख लगा कर उड़ा करती हो, लो देखो मेरे पंख। ये देखो, मैं उड़कर दिखाऊँ?”
“अरे रे रे, तनिक ठहरो तो, एक तस्वीर तो उतार लूँ तुम्हारी। फेसबुक पर डालनी है ना, अपने दोस्तों को दिखाने के लिए।”
इस बार उसकी फड़फड़ाहट से मानो फिर आवाज आई। “लो, कर लो कैद हमें तस्वीरों में, तुम्हारी भावी पीढ़ी के काम आएँगी, ये बताने को कि कोई कबूतर नाम का भी प्राणी होता था इस संसार में, वह भी डायनासोर की तरह विलुप्त हो गया।” और वह पंख फड़फड़ाता आकाश में उड़ गया।
तस्वीर तो मैंने ले ही ली थी, मगर आँखों के सामने अँधेरा-सा छा गया। दिल में ख्याल आया कि विलुप्त प्राणियों की लिस्ट में कहीं हम इंसान भी तो नहीं ….?”
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