मात्र बच्चे, पति, पत्नि, रिश्तेदारों से ही परिवार पूरा नहीं होता बल्कि घर-गृहस्थी की नींव में जाने कितनी अन्य महत्वपूर्ण इकाइयों का योगदान मिल कर उसकी नींव को सुदृढ़ बनाते हैं।
परिवार को सुदृढ़ व सुचारू रूप से चलाने में हमारे सहायकों का भी बहुत योगदान होता ही है। हमारी तरक्की, हमारी खुशी, हमारे चैन, विश्राम, सुचारू व्यवस्था, समाज में रुतबा, शाही खान-पान में भी इनका योगदान होता है। औरों का तो नहीं जानती लेकिन मेरी जिंदगी में तो हमेशा रहा ही है ये मैं खुले दिल से स्वीकार करती हूँ।
जब- जब छुट्टी करने या काम छोड़ देने से इनका सहयोग नहीं मिला तो हमेशा मेरी गाड़ी पटरी से उतर जाती। तब आराम, बढ़िया पकवान, हॉबीज , सुव्यवस्था, पार्टी वग़ैरह मेरी दिनचर्या से गायब हो जाते रहे।
दूसरे शहर जाकर जॉब करने, बच्चों के पालन-पोषण, रुटीन कामों के बाद अपने आराम , मनोरंजन, पेंटिंग, गायन व लेखन के अपने शौक आदि को जारी रख पाने लायक समय व शक्ति को बचा कर रख पाने में इनका बहुत बड़ा योगदान रहा है।
बेशक इनसे काम करवा पाना भी बेहद मशक्कतपूर्ण, धैर्य व चातुर्यपूर्ण पुरुषार्थ ही होता था। अब इनके किरदारों एवम् संस्मरण पर तो मैं पूरी एक पुस्तक ही लिख सकती हूँ।
इसी सन्दर्भ में याद आती है बीना। बात तीस साल पुरानी है।
बहुत मुश्किल से एक अच्छी बाई मिली, बीना जो काम अच्छा करती थी। एक दिन आते ही बड़बड़ाने लगी-
`बताओ दो दिन नहीं जा पाई उनके काम पे तो लाला के बजार वाली कै रई थीं, कि तुमारा कितना काम पड़ा हैगा कपड़े, झाड़ू, पोंचा, बर्तन और तुम गायब हो गईं हैं…हम बोले भाभी जी काम तो तुमारा है हमारा थोड़ी न है…तो लगी बहस करने कि नईं तुमारा है …हमने कहा लो बोलो भाबी घर तुमारा, बच्चे तुमारे, पति तुमारा तो उनका सब काम भी तुमारा हुआ न हमारा काए कूँ होता ?’
हम धीरे से ‘हम्म…’ कह कर चुप हो गए।
`नहीं भाबी आप हमेसा सही बात बोलती हो , बोलो मेंने गलत कई या सई …?’
मैंने मुस्कुरा कर बात टाली परन्तु वो बार-बार पूछने लगी तो हमने कहा-
` देख बीना सारा काम भले उनका लेकिन जब तू उनसे काम के पैसे लेती है तो फिर वो काम तेरा…सीधी सी बात है !’
हम तो कह कर हट गए परन्तु वो बहुत देर तक छनछनाती रही। अगले दिन से वो दस दिन को गायब हो गई और मैं काम में चकरघिन्नी बनी बदहवास सी बार – बार अपने गाल पर चाँटा मारती बड़बड़ाती…सब काम मेरा…सब काम मेरा…पर तीर कमान से निकल चुका था और सुनने वाली तो ग्यारहवें दिन पधारीं, वो भी बड़े तेवर के साथ। इस बात से ये तो बहुत अच्छी तरह समझ में आ गया – ‘…मा ब्रूयात सत्यमsप्रियम्’ और जब भी बोलो परिणाम सोच कर बोलो, वर्ना…!
खैर तो दूसरी किरदार याद आती हैं बड़ी बी। पहले वॉशिंग मशीन तो होती नहीं थीं तो जो मेरे घर के कपड़े प्रैस करने के लिए ले जाते थे शराफत मियाँ, उनकी ही बीबी को हमने कपड़े धोने पर लगा लिया। सब उनको बड़ी बी ही कहते थे।उनके सात बच्चे थे। तीन लड़के और चार लड़कियाँ। पाँचवी उनकी देवरानी की थी ,जब उसका इन्तकाल हुआ तो उसे भी बड़ी बी ने ही पाल लिया इस तरह उनकी कुल आठ संतानें थीं।
उनके लड़के जितने सुस्त और औंघियाए हुए थे बेटियाँ उतनी ही चटर- पटर व तितली सी रंगीन व फुर्तीली। वे प्राय: साथ- साथ जोड़ों में आती थीं।और जब तक मैं कपड़े लिख कर गठरी बनाती वे कमरे की चौखट पर बैठी, आँखें गोल-गोल घुमाती कुछ न कुछ मुझसे पूछती रहतीं या अपनी सुनाती रहती थीं।
उनकी माँ बड़ी बी भी कम बातूनी नहीं थीं, तो मौके- बेमौके हमें पकड़ कर वो भी अपनी कुछ न कुछ दास्तान सुनाने लगतीं ।वे दिन मेरे बेहद व्यस्तता भरे थे। बच्चे छोटे थे तो जॉब, गृहस्थी और बच्चों के कामों में सारे दिन चकरघिन्नी बनी रहती। लेकिन उसकी उपेक्षा नहीं कर सकती थी वर्ना न जाने कब एक ईंट मेरी गृहस्थी की सरक जाए और मैं ही अगले दिन से थपकी लेकर धमाधम …। यदि कभी उनकी बात पर तवज्जो न दे पाऊं तो कह देतीं ‘ऐ लो जी तुमाए पास तो टैम ही नहीं होता हैगा हमारी बात भी सुनने का।’
मैं हंस कर कहती ‘अरे सुन तो रही हूँ बड़ी बी, सुनाती जाओ काम हाथ से कर रही हूँ पर कान तुम्हारे ही हैं !’
तो…पता नहीं उन माँ बेटियों को मुझे ही अपने इतने किस्से जाने क्यों सुनाने होते थे ये मुझे आजतक समझ नहीं आता। बड़ी बी से उन दिनों मैंने अपने कई मलमल के दुपट्टे लहरिया में रंगवा कर चुनवाए थे और उनका बेलन बना कर सहेजना सीखा था।जो सालों मेरे पास रहे।
हम अपने पुश्तैनी घर की पहली मंजिल पर रहते थे और नीचे की मंजिल पर हमारे जेठ जी सपरिवार रहते थे। तीनों कमरों और किचिन के बीच बड़ी- बड़ी दो छतें थीं। बड़ी बी किचिन के सामने की छत पर ही कपड़े धोना पसन्द करती थीं और प्राय: हमारे कुकिंग टाइम के समय ही कपड़े धोने आती थीं।
एक दिन हम दूसरे कमरे में थे कि बड़ी बी के चीखने की आवाज आई-‘ हाय अल्लाह …बचाओ भाभीईईईईईईई…अरे भाभी बचाओ….!’ हम बदहवास हो तेजी से ताबड़तोड़ भागे। जाकर देखते ही हमारे होश गुम हो गए। एक बहुत ही मोटा सा झज्झू सा बन्दर बड़ी बी के कन्धों पर सवार होकर दोनों हाथों से उनके बालों को पकड़ कर जोर – जोर से झिंझोड़ रहा था, साथ ही खौं- खौं करता जा रहा था। सारा मंजर देख हमें तो जैसे काठ मार गया, लेकिन हमारे हस्बैंड भी चीख पुकार सुन कर आ गए तो उन्होंने जल्दी से एयर गन से हड़का कर बन्दर को भगाया।वहाँ पर बन्दर बहुत आते थे तो हम डंडों व एयर गन का इंतजाम सदा रखते थे।
बदहवास सी हाय- तौबा करती, रोती- पीटती बड़ी बी को उठा कर पानी, शरबत पिला कर शान्त किया। और चैक किया कि कहीं काटा तो नहीं, या नाखून तो नहीं मारा।शान्त होते ही बड़ी बी ने मार बन्दर को गाली देनी और कोसना शुरु कर दिया – ‘ऐ मुआ बदमास, नासपीटा देखो तो भाभी कैसा हमें पेड़ सा हिला गया। तौबा…तौबा…चक्कर आ रे अभी भी…।’
तो हमने हंस कर कहा ‘ अरे अब तो वो भाग गया तभी देतीं गाली…देना था न चाँटा घुमा कर।’
‘ऐ जाओ भाभी, तुम भी हमारा ही मख़ौल उड़ा रईं , हाँ नईं तो …ऐसी- कैसी हौल हो रई पेट में …और जो वो काट लेता तो ? भाभी सिर घूम रा अब न धुलेंगे हमसे कपड़े आज।’
हमने खिला- पिला कर उनको विदा किया और भीगे पड़े कपड़ों को निबटाते हुए मुए बन्दर को किटकिटा कर दो-चार गाली हमने भी दे डालीं।आज भी मेंहदी लगे बिखरे, झौआ से बालों में बदहवासी से चीखती और उनके कन्धों पर बैठे बन्दर का वो रौद्र रूप का जलवा जब भी याद आता है तो बरबस हंसी आ जाती है।हंसी की वजह है कि उस पल दोनों एकदम समानरूपा हो रहे थे। जानती हूँ बुरी बात है, हँसना नहीं चाहिए, मैं होती उनकी जगह तो शायद मेरा तो हार्ट फेल ही हो जाता !
एक दिन आते ही बड़बड़ाने लगीं-‘आज तो भाबी सुरैया को खूब छेत दिया हमने …अरे न हाँडी पकानी, न रोटी से कोई मतलब, न प्रैस के कपड़ों को हाथ लगाती…बस सारे दिन मरी सफाई ही करे जाए है …बालकन को खेलने दे, न खाने दे कि जाओ बाहर खेलो जाकर, घर गंदा कर दोगे फिर से। आज तो पिट ली, म्हारे हाथों।’
‘अरे तो मारा क्यों बेचारी को ? सफाई रखना तो बहुत अच्छी बात है न …च्च बेचारी…गलत बात है।’
‘अरे तुम न जानो हो भाबी सिगरे दिन की सफ़ाई किन्ने बताई लो भला ? बालक नन्हें खाबें – पीबें भी न…खेलने भी न देती। अरे हमने कही बाल बच्चों वाले भर में किन्ने बताई इतनी सफाई…लो भला…कम्बख्तों के रहवे है इतनी सफाई तो।’ हम उसकी बात सुन कर अपनी सफाई की सनक सोच कर सन्न रह गए और चुप रहने में ही खैरियत समझी।
दूसरे नम्बर की बेटी रुखसाना बहुत चटर- पटर थी। एक दिन मैं कपड़े लिख रही थी तो वो चौखट पर बैठी मटक- मटक कर गा रही थी `मार गई मुझे तेरी जुदाई….’ सहसा गाते- गाते बोली-`पता है हम सब तुमको न, रेखा कहवे हैं और तुम्हारी मिट्ठू को मन्दाकिनी कहवे हैं, बिल्कुल उनके सी ही सकल है तुम दोनों की।’
‘अच्छा पापा और चुन्नू को क्या कहते हो?’ मिट्ठू ने मजा लेते हुए पूछा।
‘तुमाए पापा की मूँछें बिल्कुल जितेन्दर जैसी हैं और भाई तुमारे तो मिथुन जैसे लगे हैं।’
तब हमारे जितेन्दर के बाल भी खूब घने थे , मूछें भी ठीक-ठाक …लेकिन सात साल के चुन्नू की तुलना मिथुन से सुन कर बहुत हंसी आ रही थी। वो खिलंदड़ी ऐसे ही दुनिया जहान की बातें सुनाती बड़ी देर खेलती- खाती बैठी रहती।
हमारे घर से प्रैस के कपड़े ले जाने और वापिस देने का काम वो ही करती।किसी और के आने पर उनसे लड़ती थी। ईद पर वे लड़कियें नए कपड़ों में खूब सज- धज कर इठलाती हुई मिठाई का डिब्बा लेकर आतीं। मैं बड़ी बी को बहुत मना करती कि मिठाई न भेजा करें पर वे नहीं मानती थीं। मैं भी उन बच्चियों को प्यार से ईदी देकर विदा करती।
बहुत कम उम्र में ही दो- दो लड़कियों के एक साथ निकाह कर दिए गए। बड़ी बी से ही उनकी खैरियत पूछती रहती, तो उनके सुख- दु:ख की खबरें मिलती रहती थीं। उनकी दो लड़कियों की शादी के बाद हम लोग दूसरे घर में शिफ़्ट हो गए जो उनके घर से दूर पड़ता था, तब तक हमने वॉशिंग मशीन भी ले ली थी।अत: लड़के या शराफत मियाँ ही प्रेस के कपड़े लाते, ले जाते रहे। बड़ी बी भी कभी-कभी मिलने आ जाती थीं। कभी सूट और कभी अचार माँग कर ले जाती थीं। एक दिन हंस कर बोलीं- ‘तमने तो वहाँ की तरहे यहाँ भी खूब फूल पत्ते लगा रक्खे… पता है हमाए घर में इसी से सब बच्चे तुमको पत्तोंवाली कहवे करे है।’
‘अच्छा…ये नहीं बताया कभी रुखसाना ने?’ मुझे हंसी आ गई उसके वाक्-चातुर्य की याद करके।
अचानक बड़ी बी की आँखें बरसने लगीं। ‘कम्बख्त उसका मरद पी के बहुत मारे है बेचारी रुखसाना को। तुम तो देखोगी तो पहचानोगी भी नहीं अपनी रुखसाना को…ऊपर से दो-दो लड़किएं और हो गईं, तो मरी सास भी न जीने देवे है।’ सुन कर मेरा मन बहुत दुखी हो गया।बहुत देर तक बड़ी बी को हौसला देती रही।अपना घर बनवा कर अब हम और दूर आ गए तो उन लोगों का आना -जाना अब बन्द हो गया है।
वे छोटे- छोटे बच्चे जो सामने पैदा हुए, हमारे बच्चों के ही समानान्तर पले, बढ़े उनसे बहुत ममता हो गई थी।आज उनका सुख-दुख अन्दर तक छू जाता है। सोचती हूँ-
`इस प्यारी- प्यारी दुनियाँ में क्यों अलग- अलग तक़दीर…’ प्रार्थना करती हूँ कि हे प्रभु सबके बच्चों को सुखी रखना…सबको स्वस्थ रखना।
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