“क्या देख रही हो, माला?”

“यह कोई नयी बेल है। अपने आप उग आयी है और देखो कितनी जल्दी- जल्दी बढ़ रही है।“

“अरे, वह तो जंगली है।उखाड़ फेंको उसे।“

“जंगली है, सो कैसे?”

“अरे तभी तो बिना देख भाल के इतनी तेजी से बढ़ रही है।“

“हरियाली तो यह भी फैला रही है और देखो इसके पत्ते भी कितने सुंदर हैं कटावदार।बिना देख भाल के पल रही है, बढ़ रही है तो जंगली हो गई? नर्सरी से ला कर नहीं लगाई तो उखाड़ फेकें?”

तभी मस्ती भरी हंसी, ठहाकों के शोर से दोनों पड़ोसिनों का ध्यान सामने के प्लॉट की ओर गया।जोर की बारिश में पीछे की बस्ती के बड़े छोटे बच्चे, उछल उछल कर नहा रहे थे। कुछ मस्ती में गा रहे थे, कुछ धक्का मुक्की करते कीचड़ में ही लोट पलोट हो रहे थे।

उनका उन्मुक्त उछाह देख दोनों के चेहरे पर मुस्कान आ गयी। माला के मुंह से जैसे स्वतः ही फूट पड़ा….”जंगली नहीं, सना, जीवट वाली”

सना भी हामी भरती हुई बोली, “हां रे,हर पौध को हैं जीन का हक, उनका तो और भी ज्यादा जो हर हाल में पनपने की लगन रखते हों।“

माला की जीवट वाली बेल भी बारिश की बूंदों की ताल पर इक नयी पुलक से भर थिरक उठी।

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