महीनों से बीमार विश्वा का दुनियादारी से जैसे विश्वास ही उठ गया था। अच्छे दिनों में जिनके साथ बनती नहीं थी उनसे तो इन बुरे दिनों में क्या आस थी। परन्तु जिन्हें वह अच्छे साथी समझता था, अपने समझता था, जिनके साथ दाँत काटी रोटी थी, जिनके काम आता था उन्होंने असाध्य बीमारी से ग्रस्त होते ही उसके घर का रुख करना छोड़ दिया था। उसने जिनकी आड़े समय में सामर्थ्य से अधिक सहायता की थी। आज वे साथ बैठकर दो बात करने से भी कतरा रहे थे।
सुबह का सुहाना मौसम! पत्नी ने उसकी कुर्सी बाहर आंगन में लगा दी। वह भी सोच रहा था परिन्दों की आवाज सुनकर, ताजी हवा की छुअन पाकर, उगते सूरज की लालिमा निहारकर उन सबको भूल जाऊँ, कुछ अच्छा सोचूँ। परन्तु विचार भी अपने वश में कहाँ?
तभी दरवाजे पर हलचल का आभास हुआ।
“देखना कौन है?” पत्नी को आदेश देते हुए उन्होंने स्वयं भी गर्दन दरवाजे की तरफ घुमा दी। विश्वा सामने जिस व्यक्ति को देख रहा था, उसे खुद पर यकीन नहीं था कि वह उसके घर आ सकता है। उसने जाने किस जलन में उनसे अच्छा व्यवहार रखा ही कब था। वह तो उनकी प्रसिद्धी से जलकर अपनी पूरी टीम के साथ उनके विरूद्ध लामबन्द रहता था।
“कैसे हो विश्वा ?” आगन्तुक ने मुस्कुराते हुए पूछा।
“सादर प्रणाम बड़े भैया।”
“प्रणाम! मुझे अपनी बीमारी की भनक भी नहीं लगने दी तुमने? वह तो मुझे दो दिन पहले नरोत्तम से पता लगा… ।” उन्होंने स्नेह से उसके सिर पर हाथ रखा।
आगन्तुक बातें करता रहा और वह नजर झुकाये सोचता रहा कि कितना गलत था मैं इनके बारे में दूसरों की बातों में आकर जाने क्या-क्या… ?
इसी बीच पत्नी चाय ले आयी। आगन्तुक ने चाय पी।
“अच्छा अब चलता हूँ” कहते हुए उन्होंने एक लिफाफा उसे थमा दिया। वह डर गया यह आदमी पता नहीं क्या थमा रहा है उसे। कहीं कोई खुन्दक तो नहीं थी इसके मन में? सोचते हुए उसने काँपते हाथों से लिफाफा खोलकर देखा, दो लाख का चैक था। उसकी आँखों से अविरल अश्रुधार बह चली। तब तक आगन्तुक आंगन पार कर गाड़ी में बैठ चुका था।
“आपने अपनी ऊँचाई सिद्ध कर दी भैया” कहते हुए उसके हाथ स्वयमेव जुड़ते चले गये।
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