सबसे पहले हम एक रेस्टोरेंट में गये अम्मा!” शाम को घर लौटकर उमा ने पूरे दिन का चिट्ठा माँ के आगे खोलना शुरू किया, “वहाँ वो मेरे सामने वाली सीट पर बैठा, खाया-पिया; उसके बाद…”

“उसके बाद?” माँ ने उत्सुकता से पूछा।

“उसके बाद किसी पार्क में बैठने के लिए हम ऑटो में बैठे।” बेटी ने बताया।

“और वह एकदम सटकर आ बैठा।” माँ ने आशंका व्यक्त की।

“हाँ।” उमा बोली।

“टोका नहीं तूने?” माँ तुनकी।

“अपने यहाँ के ऑटोज़ में सीटों का साइज़ तो तुम जानती ही हो। कितना भी सरक लो, सटे ही रहते हो।”

“अच्छा, फिर?”

“शहंशाहों की तरह खुद को उसने पीछे टिका लिया और दायीं बाँह को सीट के मेरे पीछे वाले हिस्से के ऊपर पूरा का पूरा फैला दिया…”

“और फिर, हाथ को धीरे-धीरे नीचे को सरकाना शुरू किया…!”

“नहीं।”

“बातें करते हुए अनजाने में या नींद आने के बहाने, अचानक?”

“एक बार भी नहीं।” बेटी ने बताया, “चलते-चलते एक जगह ठोकर लगने पर मैं गिरने-गिरने को हुई, तब भी उसने मुझे छूने-पकड़ने की कोशिश नहीं की। दूर से ही बोला—अरे, सँभलके?”

इतना सुनना था कि माँ की आँखों में, बरसने को आतुर बदरी तैर आयी। बेटी ने बात को जारी रखते हुए कहा, “एक बात कहूँ अम्मा?”

“बोल।”

“मैंने पापा को नहीं देखा न! उसका यह केअरिंग रूप देखकर मुझे उनकी याद हो आयी। मैं यह भूल-सी गयी कि…। बातें करते, उसकी ओर देखते हुए कई बार मेरा मन किया कि मैं उसके सीने से लगकर रो पड़ूँ…”

“नहीं,” माँ ने तुरन्त टोका, “भावुक होकर एकदम-से किसी पर भी ऐसा यकीन मत करना।”

यह सुनते ही उमा बोल पड़ी, “एकदम यही बात उसने भी मुझसे कही अम्मा!… पता नहीं किस बात पर।”

अम्मा ने बेटी के भविष्य के प्रति आश्वस्ति की साँस ली। आँखें मूँदकर अगोचर की ओर हाथ जोड़े, “तेरा लाख-लाख धन्यवाद है भगवान! तूने मेरी सुन ली।” “नहीं  अम्मा!” उमा ने तुरंत ही विनतीभरे स्वर में कहा, “इतना भी ठंडा, इतना भी सेल्फ कॉन्शस नहीं चाहिए कि ठोकर लगने पर किसी को थामने के लिए न बढ़ सके। एकदम अलोना मत खिलाओ अम्मा… थोड़ा-सा नमक, प्लीज़!

(Visited 1 times, 1 visits today)

Republish our articles for free, online or in print, under a Creative Commons license.