अवि जिस दिन विदेश से लौटा था, उसी दिन सब समझ गया था। आँगन में ही नहीं, चाची और उनके दिलों के बीच भी एक दीवार खड़ी हो गयी थी। मिनी उसकी चचेरी बहन थी रस्सी कूद, छिप्पम-छिपाई, गिट्टी फोड़ पंचगुटे आदि खेल कर वे साथ-साथ बड़े हुए थे। आज वो कम्प्यूटर कोचिंग से घर नहीं लौटी थी।
चाची के घर में हड़कंप मचा था लेकिन माँ बेअसर थी। अवि हतप्रभ था। स्टूल पर खड़े होकर दीवार के उस पार झाँक कर देखा। चाची के रुदन ने बेचैन कर दिया। वहाँ जाने लगा तब माँ ने आँखें तरेरीं,
“बैठ घर में। कोई जरूरत नहीं उनके फटे में पैर देने की।”
“लेकिन माँ ?”
“बस चुप कर। जब तेरे पिता लम्बी बीमारी में खाट पर पड़े दर्द से चिल्ला रहे थे, तेरे चाचा या चाची, कोई ना झांका इधर। हमने ऐरो-गैरों का ठेका नहीं ले रखा।”
“माँ, वो ऐरी-गैरी नहीं, मेरी बहन है। एक आँगन, एक चूल्हा था, पहले। हम में से किसी को भी काँटा चुभता था तो आपके और चाची के मुँह से एक साथ आह निकलती थी।”
“चुप कर, अब सब ख़त्म हो चुका है। अपने काम से काम रख।”
“नहीं माँ मुझे जाना है। मिनी मेरी सगी बहन से बढ़ कर थी और है। जाने वह किस मुसीबत में फंसी है, हम उनकी मदद को आगे नहीं आएँगे तो क्या गाँव के लोग आएँगे ?”
“तू नहीं जानता, इन्होंने बहुत घाव दिए हैं।”
“तो माँ, एक घाव और सह लो। मैं उसकी खोज-खबर लेने जा रहा हूँ।” कह कर अवि तेजी से घर से निकल गया। जाने क्यों, भीतर से माँ को भी उसका जाना बुरा ना लगा। वर्षों से दबी हुई इच्छा फूट पडी, “अच्छी शुरुआत की है तूने, बेटे। क्या पता रिश्तों की रगों में फिर से वही जज्बात दौड़ने लगे।”
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